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एक म्यान दो तलवारें

नानक सिंह

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :326
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7835
आईएसबीएन :978-0-14-306326

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एक म्यान दो तलवारें कहानी है एक ही घर में मौजूद देशभक्त और देशद्रोही की...

Ek Myan Do Talwarein - A Hindi Book - by Nanak Singh

‘एक म्यान दो तलवारें’ कहानी है एक ही घर में मौजूद देशभक्त और देशद्रोही की

1914-15 की पृष्ठभूमि में बुनी यह कहानी बीरी की है, उसके भाई की है, जो अंग्रेजों के पिट्ठू अपने पिता को आहत किए बिना आज़ादी की जंग में हिस्सा लेना चाहते हैं। बीरी का यह द्वंद्व उसे कहां पहुंचाता है ? क्या उसके पिता अपने बच्चों को समझ पाते हैं ?

नानक सिंह की जादुई धारदार क़लम से लिखा और भारतीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित यह उपन्यास देश पर बलिदान होने वाले अमर शहीदों को एक श्रद्धांजलि है।

Ek Myan Do Talwarein, Nanak Singh

आवरण डिज़ाइन : पूजा आहूजा

नानक सिंह (1897-1971) को पंजाबी उपन्यास का जनक माना जाता है। 1918 में, इक्कीस वर्ष की आयु में शबद की आपकी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसकी एक लाख से अधिक प्रतियां बिकी थीं। आपकी कुछ प्रसिद्ध रचनाएं दमामा बाजया, पवित्र पापी, अध खिरया फुल, बंजर, संगम, चिट्ठा लहू आदि हैं।

1960 में आपको पंजाब के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान और 1962 में भारतीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार से नवाजा गया। आपके जन्म शताब्दी वर्ष में भारत सरकार ने आपके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था। 1942 में आपका उपन्यास पवित्र पापी प्रकाशित हुआ। इसका अंग्रेजी अनुवाद आपके पौत्र नवदीप सूरी ने किया है, जो पेंगुइन बुक्स इंडिया में प्रकाशनाधीन है। 1968 में आपके उपन्यास पवित्र पापी पर इसी नाम से हिंदी फ़िल्म भी बन चुकी है।

पहला परिच्छेद
1


सामान भी तो नाममात्र को ही था उसके पास। ‘बीबी के दो चीथड़े, टूटी चप्पल हाथ’ वाला हाल। नीचे बिछाने को एक भुरभुरी सी चटाई, ऊपर ओढ़ने के लिए फटा-पुराना एक कंबल और खादी की एक चादर। नामात्र को एक रजाई भी थी उसके पास, परंतु बिल्कुल गठरी सी। सीवनें टूटी होने के कारण अंदर की रूई इधर-उधर इकट्ठी हो गई थी।

बर्तन-भांडे के तौर पर यदि कुछ था तो मुड़े हुए किनारों वाला एक पतीला, टेढ़ी सी थाली, दरारें पड़ा हुआ फूल का कटोरा और ज़रा अच्छी हालत में लोटा।
इसके अतिरिक्त दयाले के पास न जाने कब का संजोया हुआ थोड़ा सा पैसा-धेला भी था, जो सब मिलाकर होगा कोई सात-आठ रुपए।

यह सब लटरम-पटरम उसने चटाई में समेटा, मूंज की रस्सी के दो-चार लपेट देकर बांधा और इसे कंधे पर रखकर भोर होते ही ठाकुरद्वारे की चारदीवारी से निकल खड़ा हुआ।
किसी का क्या रुका जाता था उसके बिना, जो उसे जाने से मना करता। अलबत्ता उसके दो-चार ठेलुए थे गांव में, उनमें से यदि किसी को पता लग जाता तो शायद उसे रोकने की कोशिश की जाती। संभव है, उसी डर के कारण दयाले ने सुबह-सुबह ही गांव से निकलने का फ़ैसला किया हो।

बचपन में ही दयाला अनाथ हो गया था। गांव में एक बार प्लेग फैला तो उसके मां-बाप को भी अपनी लपेट में ले लिया। उसके बाद कुछ समय तो दयाला अपने चाचा-ताऊ के टुकड़ों पर पलता रहा, परंतु उनके अतिरिक्त चाची और ताई भी तो थीं। दयाले को रूखा-सूखा खाना देना भी जब उन स्त्रियों के लिए कष्टदायक हो गया तो उसने गांव से बाहर, ठाकुरद्वारे में डेरा डाल दिया। जहां रहते हुए उसने बचपन गुज़ारा और जवानी में पदार्पण किया।

वैसे तो दयाला अच्छे खाते-पीते खत्री घराने का था और था भी अपने मां-बाप की इकलौती संतान, परंतु भाग्य की कुटिलता ने बेचारे को ज़िंदगी के हर पक्ष से वंचित कर दिया। उसके चचेरे-फुफेरे भाई उसी ‘चक जानी’ और निकटवर्ती ‘पिनण वाल’, ‘चक शादी’, ‘शेरपुर’ आदि गांवों में अपने पूर्वजों वाला पेशा, व्यापार आदि करते थे, पर बेचारे दयाले की क़िस्मत में तो रूखी-सूखी रोटी से अधिक कुछ न था। न किसी ने उसके पेट में चार अक्षर डाले, न उसे कोई अक़्ल-शऊर आई। निरा गंवार का गंवार। इससे बढ़कर उसका दुर्भाग्य यह कि क़द का वह नाटा था और शक्ल-सूरत से भी ऐसा-वैसा ही। रंग उसका बिल्कुल आबनूसी तो नहीं था जैसा अफ़्रीकी हब्शियों का होता है, परंतु बरसाती बादलों जैसा ज़रूर था। इन्हीं कारणों से दयाला न तीन में रहा न तेरह में। बस ठाकुरद्वारे में खाना खा लेता और दिन व्यतीत करता जाता।

हर पक्ष से शून्य होने पर भी दयाले में एक गुण था, यदि इसे कोई गुण समझे तो। यह था, धर्म में उसकी आस्था। इस धार्मिकता के भी कुछ विशेष कारण थे, नहीं तो संभव था कि वह इससे भी वंचित ही रहता।

दयाले के पूर्वज ‘सोढ़ी साहिबज़ादों’ के शिष्य अथवा सेवक थे। और उनकी प्रथा उसे बिरसे में मिली थी। अपने गुरुओं पर दयाले की गहरी श्रद्धा थी। बहुत दिन पहले, जब उसे जवानी नहीं चढ़ी थी, जब कभी उसे गुरु की सवारी आने के विषय में ख़बर मिलती तो पहले ही कई कोसों की यात्रा करके जा पहुंचता। जितनी देर उस इलाक़े में गुरु का दौरा रहता, दयाला परछाईं की तरह उनके साथ रहता, और दिन रात सेवा में जुटा रहता, जो कहीं उस जैसे निकम्मे आदमी पर भी गुरु की कृपा हो जाए और वह भी किसी गिनती में आ जाए। उसका दृढ़ विश्वास था कि जिस किसी पर गुरु की कृपा दृष्टि हो जाए, उसे नौ निधियां और अठारह सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं।

इतना अनन्य भक्त और परिश्रमी सेवक गुरु की दृष्टि से ओझल कैसे रह सकता था, चाहे शिष्य-सेवकों के कितने ही घने झुरमुट में वे घिरे हों। दयाले को अपने गुरु की कृपा प्राप्त हो चुकी थी। उन्होंने उसकी प्रशंसा भी की थी। बल्कि एक बार तो प्रसन्न होकर गुरु ने उसे आशीर्वाद भी दिया था—‘दयाले, समय आएगा कि एक दिन तुझ पर देवी माता दयालू होंगी।’ और दयाले ने इस आशीर्वाद को कभी नहीं भुलाया। वर्ष पर वर्ष बीतते गए, दयाला बड़ी उत्सुकता से देवी माता की प्रतीक्षा करता रहा। इस बीच जब कभी भी गुरु की सवारी आती, वह उनके चरणों में प्रार्थना करता—‘हे सच्चे पातशाह ! कब तक देवी माता की कृपा होगी मुझ पर ?’ और हर बार गुरु कहते, ‘धीरज का फल मीठा होता है भाई—अधीर न हो। धर्म-कर्म की ओर ध्यान लगाया कर।’ और दयाला इस आश्वासन को पाकर नए उत्साह और उमंग से जुट जाता धर्म-कर्म की ओर।

पूजा-पाठ के तौर पर यदि दयाले के पास कुछ था तो केवल दो मंत्र, जपुजी की पांच पोढ़ियां और गायत्री का ग़लत-सलत मंत्र, जो उसने किसी भक्त से सीखकर कंठस्थ कर लिए थे। वर्षा हो चाहे तूफ़ान, दयाले के नित्य नियम में अंतर नहीं आता था। सुबह वह कुएं पर स्नान करके, और यदि कुएं पर सुविधा न हो तो किसी पोखर या तालाब में ही डुबकी लगाकर ठाकुरद्वारे जा पहुंचता, जहां आगन वाले पीपल के नीचे चौतरे पर पालथी मारकर बैठ जाता। पहले काफ़ी देर तक गायत्री का मंत्र, ‘ऊँ भूर भवह स्वाहा। तत् सवित्र रविरेणयं भरगो देवी भयं...’ जपता रहता। उसे पश्चात उतनी ही देर जपुजी के ओंकार से लेकर ‘सपनां जीआं का इक जाता...’ तक का पाठ जारी रखता।

दयाले पर परंपरागत रूढ़ियों का गहरा प्रभाव था। पत्थर की लकीर की भांति उसके निश्चय में ये बातें ऊभरी हुई थीं कि ‘झूठ बोलने वाले को मृत्यु के पश्चात खौलती कड़ाही में तला जाता है...., बेईमानों को यमदूतों की मार खानी पड़ती है..., पराई स्त्री को कुदृष्टि से देखने वाले को जलती ज्वाला में फेंका जाता है,’ इत्यादि। इस तरह के भावी कष्टों से सुरक्षित रहने के लिए वह बड़ा संभलकर चलता।

दयाले का स्थायी रूप से ठाकुरद्वारा ही एक ठिकाना था, जहां बड़ी आयु का एक कनफटा योगी पुजारी के रूप में रह रहा था। नाथ और दयाले का संसर्ग पुराना होने के कारण दोनों कुछ इस तरह एक-दूसरे के लिए अनिवार्य हो गए थे कि न तो उसका इसके बिना और न इसका उसके बिना गुज़ारा चल सकता था। परंतु इतना होने पर भी कभी-कभी परस्पर खटपट हो जाती।

नाथ एक तो आयु में सठिया होने से प्रायः रोगी रहता, दूसरा स्वभाव का कड़वा और रुखा होने के कारण मामूली सी बात पर ही क्रोधित हो जाता। क्रोधावस्था में जो मुंह में आता, कह देता। कई बार तो क्रोध के पात्र पर वह धूनी वाला चिमटा चलाने में भी संकोच न करता। शायद यही कारण था कि कोई भी चेला उसके पास अधिक समय नहीं ठहरता। केवल एक दयाला ही न जाने किस मिट्टी का बना हुआ था जो उसके साथ निर्वाह करता चला आ रहा था।

झाड़-बुहार से लेकर धूनी के लिए ईंधन लाने तक की ज़िम्मेदारी दयाले ने संभाल रखी थी। नाक के ज़िम्मे कोई काम था तो गांव में जाकर भिक्षा मांग लाना और झगड़े का अधिकतर कारण भी यही भिक्षा थी। जब कभी बीमारी की वजह से नाथ गांव जाने में असमर्थहोता तो वह दयाले को यह काम सौंप देता, परंतु दयाले की तो वह बात थी कि ‘रस्सी जल गई पर बल न गया।’ खत्री होकर वह भिक्षा मांगने जाए, और उन लोगों के पास जो उसके परिवार में से थे !

दूसरी अनबन जो इन लोगों में कभी-कभी हो जाती थी, वह थी ‘चिलम’ का बखेड़ा। नाथ को शिकायत थी कि वह पेटू कि मर्ज़ की दवा है, यदि चिलम भरकर नहीं दे सकता। पर दयाला मजबूर था। वह तो ‘गुरु का सिख’ था। चिलम को कैसे छूता ? उसके मन में ज़्यादा आग तब लगती, जब खीझा हुआ नाथ उसे गाली देता तो अलग, उसके गुरु की शान में भी कड़वी-कसैली बातें मुंह से निकालता। और उत्तर में जब दयाला अपने गुरु की करामातें गिन-गिनकर सुनाना प्रारंभ करता तो नाथ का पारा और भी चढ़ जाता। वह यहां तक कह उठता, ‘अरे बड़े देखे हैं ऐसे पाखंडी। यदि इतना करामाती है तेरा गुरु तो तुझे ही राजा-नवाब क्यों नहीं बना देता, जो कुत्ते की तरह यहां पड़ा है ?’

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